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लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी

भाग 87  बारात वापस आने का समाचार आ गया था । हस्तिनापुर वधू की तरह सज रहा था । पूरे नगर में उल्लास बरस रहा था । उमंगों की चांदनी फैली हुई थी । आशाओं के उपवन खिल रहे थे । आनंद के झरने बह रहे थे । उत्साह के इन्द्र धनुष तन रहे थे । स्त्रियां मंगलगान गा रही थीं । गन्धर्व और यक्ष नृत्य, नाटक और भांति भांति के कौतुक कर रहे थे । हवेलियां सज रही थीं । रंगोली सजाई जा रही थी । ढोल , मृदंग, शंख , ढप , चंग बज रहे थे । पुरोहित मंत्र पढ़ रहे थे । ज्योतिष पंचाग देखकर वधू के गृह प्रवेश का मुहुर्त निकाल रहे थे । ऋषि मुनि यज्ञ कर रहे थे । गरीबों , ब्राह्मणों , साधुओं को दान दिये जा रहे थे । चारों ओर शोरगुल हो रहा था । प्रत्येक नागरिक भगवान को धन्यवाद दे रहा था कि उन्होंने सम्राट ययाति के विवाह का दृश्य देखने का अवसर प्रदान किया और इस हर्षोल्लास के वे साक्षी बन सके ।

अशोक सुन्दरी के हर्षोल्लास की कोई सीमा नहीं थी । यति के सन्यासी बनने और महाराज नहुष के स्वर्ग से पतन होने के पश्चात यह शुभ अवसर आया था । उनके लिए यह अवसर ऐसा था जैसे किसी लुटे हुए सेठ को कहीं से कोई गढ़ा हुआ धन मिल जाये । उन्हें ऐसा लग रहा था कि ईश्वर ने समस्त खुशियां उनकी झोली में डाल दी हैं । देवयानी जैसी देवांगना उनकी पुत्रवधू बन गई है । जिन लोगों ने उसे देखा है वे लोग उसके सौन्दर्य की प्रशंसा करते थकते नहीं थे । देवयानी के आने से उनका यह अंत:पुर अध्युष्ट (आबाद) हो जायेगा । यद्यपि अमात्य और अन्य अधिकारी समस्त व्यवस्थाओं का पर्यवेक्षण कर रहे थे किन्तु अशोक सुन्दरी समस्त व्यवस्थाओं को अंतिम रूप दे रही थी । भागदौड़ करते करते वे थक गई थीं लेकिन विश्राम करने को समय नहीं था उनके पास । अमात्य और सुमन्त ने उन्हें बहुत कहा था कि वे सब संभाल लेंगे किन्तु अशोक सुन्दरी को लगन लगी हुई थी । वह वर वधू के स्वागत में कोई कमी नहीं छोड़ना चाहती थी इसलिए वह चारों ओर घूम घूमकर सब व्यवस्थाऐं देख रही थी ।

इतने में एक सेविका ने आकर सूचना दी "बारात वधू को लेकर आ गई है राजमाता" ।  ये शब्द सुनकर अशोक सुन्दरी रोमाञ्चित हो उठी और दरवाजे की ओर दौड़ पड़ी । दरवाजे पर वर वधू के स्वागत के लिए भारी भीड़ लगी हुई थी । राजमाता को आते देखकर भीड़ ने उन्हें रास्ता दे दिया । वे अपने पुत्र और पुत्रवधू की अगवानी करने के लिए थाल सजाकर देहरी पर खड़ी हो गईं । सयाति आगे आगे चलकर सबको सूचित कर रहा था जिससे समय पर सब लोग तैयार मिलें । सयाति ने आगे बढ़कर अशोक सुन्दरी के चरण स्पर्श किये । राजमाता ने उसे अपने अंक से लगा लिया । मां के आंचल की छांव के आगे सारे सुख फीके हैं । सयाति मां से लिपट गया । अशोक सुन्दरी ने उससे हास्य करते हुए कहा "आपकी वधू भी शीघ्र ही ला देंगे, इतने उतावले क्यों हो रहे हो" ?  यह वाक्य सुनते ही सयाति झट से मां से अलग हो गया और चेहरा छुपाकर भाग गया । सभी स्त्रियां हो हो करके हंसने लगीं ।

थोड़ी देर में वधू की डोली आ गई । डोली में से पहले शर्मिष्ठा उतरी । अशोक सुन्दरी उसके रूप और लावण्य को देखकर समझ बैठी कि वह ही वधू है इसलिए उसकी आरती उतारने लगी । इतने में डोली से देवयानी भी उतरने लगी । यह दृश्य देखकर अशोक सुन्दरी हतप्रभ रह गई । एक साथ दो दो वधू ? ये कैसा दृश्य है ? वह चौंक गई और ययाति के मुंह की ओर देखने लगी । ययाति अपनी मां की वह स्थिति देखकर मन ही मन आनंदित हुआ । "आखिर मां भी चकरा गई ना" ! उसके अधरों पर मुस्कान फैल गई । तब तक शर्मिष्ठा ने अशोक सुन्दरी के पैर पकड़ लिये और "मां" कहते हुए उसकी हिलकी बंध गई । अशोक सुन्दरी आश्चर्य चकित होकर उन दोनों को बारी बारी से देखने लगी । ययाति ने मां को हाथ और आंखों के इशारे से समझा दिया कि वह बाद में समझा देगा कि ये माजरा क्या है ?

इतने में देवयानी ने राजमाता के चरण स्पर्श किये । ययाति ने नयनों से ही समझा दिया कि पुत्र वधू यही है । अशोक सुन्दरी देवयानी को आशीर्वाद देने के बजाय शर्मिष्ठा को देखने लगी । "कौन है यह लड़की ? इसके व्यक्तित्व में इतना आकर्षण क्यों है कि मन देखने के लिए लालायित हो उठा है । इसकी वेशभूषा तो दासियों जैसी है किन्तु चेहरे का तेज किसी राजकुमारी जैसा है" । अशोक सुन्दरी सोच में पड़ गई ।  "किस सोच में डूबी हैं माते ? मुझे देखकर क्या आपको प्रसन्नता नहीं हुई, माते ? क्या मुझसे कोई त्रुटि हुई है माते" ? देवयानी के स्वर में विस्मय था ।  अशोक सुन्दरी जैसे गहरी तंद्रा में से बाहर आई और उन्होंने  चौंक कर उसे झट से अपने अंक में भर लिया । "अरे नहीं पुत्री ! मैं आपके सौन्दर्य को देखकर चकरा गई  थी । अपनी सुध बुध खो दी थी मैंने । आप तो साक्षात माता लक्ष्मी की तरह सुन्दर हैं । आप तो मेरी पुत्री जैसी हैं । आपसे कैसे त्रुटि हो सकती है ? और यदि हो भी गई है तो कोई बात नहीं पुत्री । मां तो सब त्रुटियों को क्षमा करती है पुत्री । मैं तो यह सोच रही हूं कि अब सम्राट का क्या होगा ? एक वधू लेने गये थे और दो दो ले आये । अब सारा समय तो आप दोनों को प्रसन्न करने में ही व्यतीत हो जाएगा फिर राज काज के लिए समय कहां रहेगा इनके पास" ? अशोक सुन्दरी परिहास करते हुए बोली ।

देवयानी तुरंत समझ गई कि शर्मिष्ठा को लेकर राजमाता को कुछ गफलत हो गई है । वह तुरंत बोल उठी "माते, यह शर्मिष्ठा है । यह आपकी वधू नहीं , मेरी दासी है" ।  अब अशोक सुन्दरी को सब रहस्य समझ में आ गया । सुना तो उसने भी था शर्मिष्ठा के बारे में पर उसे देखा आज था । शर्मिष्ठा एक दैत्य राजकुमारी है जो आज उसके घर में देवयानी की दासी बनकर खड़ी हुई  है । उसे दासी रूप में देखकर उन्हें कुछ अटपटा सा लगा ।  उसने देवयानी को आशीर्वाद देते हुए कहा "चिर सौभाग्यवती रहो, पुत्री" । फिर उन्होंने शर्मिष्ठा के सिर पर हाथ फिराते हुए कहा "धैर्यवान बनो पुत्री" ।  अशोक सुन्दरी का स्नेह देखकर शर्मिष्ठा की आंखें नम हो गईं । अशोक सुन्दरी का शर्मिष्ठा पर ममता की बरसात करना देवयानी को कतई नहीं सुहाया इसलिए वह बोली  "ये शर्मिष्ठा है माते । आपकी पुत्री नहीं , मेरी दासी है दासी । एक दासी आपकी पुत्री कैसे हो सकती है माते" ? देवयानी ने दोनों में अंतर समझाने की कोशिश की ।

देवयानी के वचन सुनकर अशोक सुन्दरी को आश्चर्य हुआ । उसने तो सुना था कि देवयानी और शर्मिष्ठा दोनों सखि हैं । लेकिन यहां तो सखि जैसा कोई भाव नहीं था देवयानी के हृदय में । वहां तो विद्वेष का अथाह सागर घुमड़ रहा था । उन्हें शर्मिष्ठा से सुहानुभूति हो गई ।

देवयानी की ओर देखकर अशोक सुन्दरी बोली "नियति बहुत प्रबल होती है पुत्री । नियति के कारण एक पल में सारा मंजर बदल जाता है । राजा रंक और रंक राजा बन जाता है । शर्मिष्ठा एक राजकुमारी है पुत्री । पता नहीं भाग्य के द्वारा ली जाने वाली परीक्षा ने इसे राजकुमारी से एक दासी क्यों बना दिया है । हो सकता है कि ईश्वर इन पर कोई विशेष कृपा करने वाले हों । पर पुत्री , दिन कभी एक समान नहीं होते हैं । आज छांव है तो कल उजली धूप होगी , यह बात अटल है । समय का पहिया स्थिर कब रहा है" ?

और उन्होंने अचानक से शर्मिष्ठा को अपनी बांहों में कस लिया । "मन छोटा मत करो पुत्री । तुम तो मेरी पुत्री जैसी हो । तुम दासी तो केवल देवयानी की हो सकती हो बाकी सबके लिए तो तुम मेरी पुत्री जैसी ही हो । आज मैं एक साथ दो दो पुत्रियां पाकर धन्य हो गई हूं । मेरे कोई पुत्री नहीं थी । मेरे मन का एक कोना पुत्री के अभाव में खाली खाली रहता था । आज तुम दोनों ने मेरी वह कमी पूरी कर दी है । भगवान तुम दोनों को सदा सुखी रखे" । और वे देवयानी की आरती उतारने लगीं ।

देवयानी इस खानदान की महारानी बन गई थी । उसके चेहरे से यह भाव स्पष्ट रूप से नजर आ रहा था । उसने एक नजर शर्मिष्ठा की ओर देखा जैसे कह रही हो "देखा, मैं अकिंचन से महारानी बन गई और तुम एक राजकुमारी से दासी । बुद्धि से भाग्य भी बदल जाता है । मैंने अपनी बुद्धि से अपना भाग्य बदल लिया । और तुमने ? तुम्हारे पास यदि बुद्धि होती तो अपनी किस्मत को यूं हाथ से फिसलने नहीं देती" । देवयानी का दर्प से भरा मुख और भी उद्दीप्त हो गया ।

गृह प्रवेश का समय निकला जा रहा था इसलिए सभी लोग शीघ्रता करने लगे । सबके आग्रह पर ययाति और देवयानी ने एक साथ गृह प्रवेश किया । इस शुभ अवसर पर हजारों दुन्दुभियां बज उठी । इन दुन्दुभियों के शोर में शर्मिष्ठा की आहें कहीं विलुप्त हो गईं ।

महल की समस्त स्त्रियों ने देवयानी को चारों ओर से घेर लिया ।  स्त्रियां देवयानी को छू छूकर देखने लगीं कि कहीं वे स्वप्न तो नहीं देख रही हैं ? देवयानी के सौन्दर्य की ख्याति अल्प समय में ही पूरे हस्तिनापुर में फैल गई । साथ में शर्मिष्ठा की सौम्यता , सुन्दरता में छिपी सादगी और विनम्रता के चर्चे भी हस्तिनापुर में होने लगे ।

श्री हरि  1.9.23

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3 Comments

Babita patel

05-Sep-2023 12:16 PM

Nice

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KALPANA SINHA

05-Sep-2023 11:29 AM

Very nice

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